अंजान रिश्ता...
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गर्मियों के मध्य की एक गर्म सुबह, अपनी अगली
कहानी के लिए एक नए शीर्षक और भूमिका की तलाश में हर सुबह की भाँती एक बार फिर घर से
निकल पड़ा एक नवयुवक, जिसने शायद अभी-अभी लिखने की शुरुआत की है. वह लिखने के लिए
ऐसे विषयों का चुनाव कर रहा है, जिसमें समाज की सच्चाई है, जिन विषयों पर शायद
पहले भी काफी कुछ लिखा जा चुका है परन्तु वह उन्हीं सब विषयों को अपनी नज़रों से
देखकर, महसूस करके, उनमें जीना चाहता है, अपनी तरह से लिखना चाहता है. और इस लिखने
के अपने चंचल मन को लिए जगह-जगह घूमता रहता है. यहाँ से वहां, न जाने उसकी तलाश
कहाँ ख़त्म होने वाली है. कोई नहीं जानता, शायद वो भी नहीं. इसी रास्ते में चलते
हुए जो भी कुछ उसके सामने पड़ता वह उसके विषय में कुछ लिख देता. परन्तु वह एक बात का
सच्चा था, या कह सकते है कि उसमें इस बात को लेकर सच्चाई थी कि वह उस घटना को, उस वाकिए
को उसी के कलेवर में लिखना चाहता है, कोशिश करता है कि जो देखा है, उसी को उसी
प्रकार लिखा जाए. किसी भी तरह का बदलाव न हो, वह घटना कोई कहानी न लगे, बल्कि घटना
ही रहे.
उसका सफ़र कहाँ जाकर ठहरेगा, उसे भी नहीं मालूम था
परन्तु वह चलता जा रहा है. उन अनजान राहों पर जो अनंत हैं. जिनका कोई छोर शायद हो
सकता है परन्तु यह उसे नहीं मालूम. एक ओर उसके लेखन से काफी लोग प्रभावित थे तो
काफी लोगों का मानना था कि उसे लिखना नहीं आता. वह बेकार और व्यर्थ ही अपना समय
गँवा रहा है, पर उसे इस किसी भी बात कोई फर्क नहीं पड़ता था, वह था अपनी ही धुन में
मस्त. एक दीवाने के सामान. जो लिखता था उसे संभाल कर रखता है और समय आने पर
प्रकाशित करने के लिए दे दिया करता था. उसकी कई कहानियां प्रकाशित भी हो चुकी थीं.
जिन्हें काफी सराहना भी मिली थी परन्तु फिर भी वह कुछ नया और अनोखा लिखना चाहता
था. अपने लिए नहीं समाज में बदलाव के लिए शायद उसने आज़ादी के समय के सभी लेखकों को
अपनी प्रेरणा मान लिया था, जिनके लेखन से एक चिंगारी उठ जाती थी, और उसी चिंगारी
ने आज़ादी बनकर हमें स्वतंत्रता दिलाई. वह लिखना चाहता था, समाज में घट रही हर एक
घटना के विषय में, समाज में फैली दरिद्रता के विषय में, भूख से तड़पते बचपन के विषय
में, लाचारी भरी जवानी के विषय में, सहारा ढूंढते बुढ़ापे के विषय में, और लिखना
चाहता था, हर उस घटना के विषय में जो समाज में उसे दिखाई दे रहे थे.
हर रोज़ वह घर से निकल जाता था, किसी को बिना
बताये, कहाँ जा रहा है, उसे भी नहीं पता था. वह कभी मंदिरों में, गिरजाघरों में, मस्जिदों
में, कभी सडकों के किनारे, लाल बत्तियों पर, बंजर पड़े पुलों के नीचे, चलती बसों
में, रेलवे स्टेशनों पर, गली कूचों में भीख मांगते, कुछ सामान बेचते बचपन को,
लाचार जिंदगियों को देखता था, तो सोचता था कि आखिर ऐसा क्यों है.........??? हमने
तो तरक्की कर ली है, फिर भी ऐसा क्यों.........??? आखिर
क्यों...................??? क्या यही तरक्की की है हमने....................??? आंसू
बहने लगते थे उसके जब कोई लाचार बच्चा जो शायद अपना पेट भरने या अपने परिवार का
पालन पोषण करने के लिए उसका हाथ पकड़ कर उसके पीछे तब तक पड़ा रहता, जब तक की वह
किसी दूसरी बस में नहीं चढ़ जाता था. पर उस बच्चे को फिर भी कोई दुःख नहीं था, वह
उसका हाथ छोड़कर किसी और का हाथ पकड़ लेता था, इसी आस में कि शायद कहीं और से कुछ
मिल जाएगा, और उस बच्चे का यह काम सारा दिन उसी प्रकार जारी रहता था.
एक दिन कि बात है. वह फिर से अपने घर से निकला
इसी आस में कि शायद आज लिखने को कुछ ऐसा मिल जाए, जिससे समाज की हकीक़त, देश की
हकीक़त का पता चले. आखिर इतनी तरक्की के बाद भी हम इतने पिछड़े हैं........ऐसा वह
सोचता हुआ चल रहा था. कदम बढ़ते जा रहे थे........सोच के सागर में वह डूबता जा रहा
था. उसमें जज्बा था कुछ करने का, समाज में सुधार का का. पर अभी उस मुकाम को हासिल
नहीं कर पाया था जिसके बाद कुछ कर पाता. इसीलिए उसकी आँखों से आंसू नहीं रुकते थे,
देखा नहीं जाता था, उससे समाज में फैला यह अन्धकार. जब कुछ कर नहीं पाता तो रो
लेता था, या अपने भावों को अपनी लेखनी के माध्यम से प्रकट कर दिया करता था. इसी
सोच में डूबा की शायद कभी तो कुछ बदलाव होगा, वह एक बस में जा चढ़ा, और पिछली सीट
पर जा बैठा................!!! बाहर के नज़रों को देखता जा रहा था, और मन में एक
नया भाव पनपा की प्रकृति कितनी सुंदर है. हर एक जगह पेड़ पौधे हरियाली, नदी झरने, कितना
सुंदर लगता है. भाव में बदलाव आ चुका था, वह खो गया था प्रकृति की सुंदरता में, अब
शायद समाज के बारे में कुछ समय के लिए भूल गया था. एक गाँव से दूसरे, दूसरे से
तीसरे, गुजर रहे थे, बस अपनी ही धुन में चलती जा रही थी, चढ़ने उतरने वालों के
बदलते चेहरे, बदलते मौसम की तरह लग रहे थे उसे. अचानक बस एक जगह रुक गई, बस के कंडक्टर
ने उससे पूछा अरे..........................!!!!!! भई जाना कहाँ है, तुन्हें, टिकट
यहाँ पर ख़त्म हो जाती है. अब बस वापिस जायेगी..............................कहकर
कन्डक्टर बस से उतर जाता है. और खाना खाने के लिए सड़क के किनारे खड़ी एक रेहड़ी की
ओर बढ़ता है. शायद वहां किसी और की नज़र उस महिला पर नहीं गई थी, जो वहां खड़ी किसी
से भीख में कुछ मिल जाने का इंतज़ार कर रही थी. शायद वह वहां रोजाना आती होगी.....................उसने
मन ही मन सोचा.......!!! वह महिला किसी की भी नज़रों में नहीं आ रही थी, उसका शक
यकीं में बदल गया था, इस घटना के बाद....................!!! जब वह खाना खाते एक
व्यक्ति की ओर बढ़ी और उस व्यक्ति ने उसे यह कहकर.........................वहां से
भगा दिया कि क्या रोज रोज आ जाती है....................भाग यहाँ से पागल...............................कहीं
की..........................!!! कपड़े पहने तो थे उस महिला ने जिसे लोग पागल का
दर्जा दे रहे थे, या ये भी हो सकता है कि वह महिला पागल न हो...................उसे
यह जामा ऐसे ही पहनाया जा रहा हो. अपना खाना न देने के
लिए............................खा भी कितना लेगी वह..........................ये
सोचता हुआ वह उस महिला को निहारता रहा. वह उसे ऊपर से नीचे तक देख रहा था. और सोच
रहा था कि क्या एक महिला ऐसे भी रह सकती है, जैसी स्थिति में यह महिला है. एक
हल्का पीले से रंग का कपड़ा लपेट रखा था, उसने अपने बदन पर.......................सूरज
की तपती गर्मी ने उसके रंगा को झुलसा दिया था. उसका शरीर सूखे चमड़े की भाँती दिख
रहा था. आँखों के नीचे के काले घेरों ने इस कदर उसके चेहरे पर अपनी जगह पक्की कर
ली थी कि मानो अब अपनी जगह नहीं छोड़ेंगी..................!!! हाथों पैरों के
नाखून शायद हद से ज्यादा ही बड़े हो गए थे इस महिला के..................!!! कुछ तो
सूरज ने उसके शरीर को जला रखा था, ऊपर से बरसों से न नहाने के कारण जो मैल उसके
शरीर पर चढ़ गया था....................वह बहुत दूर से ही देखा जा सकता था. उस पीले
कपड़े के अलावा उसके पास और कुछ नहीं था.................!!! वह उसे निहारता हुआ
शायद कहीं खो गया था, स्वप्न से बाहर आया तो देखता है कि वह महिला..................................उस
रेहड़ी के पास ही खड़ी एक गंदी सी बाल्टी, कूड़ेदान से...........................
जहां ग्राहक के खाने के बाद बचा खाना फेंका जा रहा था, वहां से उस कूड़ेदान में से
बची कटी, टूटी रेट मिली, मिट्टी मिली सब्जी और पानी में तरबतर रोटी के टुकड़े उठा
उठा कर खा रही थी, पास ही के गड्ढे में कुछ पानी भर गया था, ये पानी बर्तन मांझने
के दौरान उस काम करने वाले बच्चे से गिरा था, झुककर मुंह से पी रही थी, क्योंकि
उसके लिए, उस रेहड़ी पर पानी भी नहीं था. जिसे पीकर वो अपनी प्यास बुझा
लेती.......................!!! कितनी निर्मम स्थिति थी...........उस महिला
की.....................!!!
क्या जीवन जी रही थी वह.......................................!!!
उससे रहा नहीं गया....................और भागता हुआ उस महिला के पास पहुंचा और उसे
प्लेट में खाना देकर उसी के पास बैठ गया उसे खिलाने के लिए...................!!! उस
महिला को इतनी जल्दी थी उस खाने को खाने की कि मानो उसे पहली बार ही ऐसा खाना मिल
रहा हो, वह इतनी जल्दी में थी कि उसे यह भी डर नहीं था कि उसे फंदा लग सकता है, उसके
गले में खाना अटक सकता है.......................वह बस अपनी ही धुन में
थी....................... खाना ख़त्म होने के बाद उसने उस महिला से
पूछा और खाना चाहिए.................................................. ??? तो
वह महिला उसकी तरफ तरस भरी आँखों से देखने लगी, दर्द था उसकी आँखों
में................................ चेहरे पर किसी अपने से काफी समय मिलने के
बाद की भावना उमड़ पड़ी थी............................... बेशक एक दूसरे को
जानते नहीं थे परन्तु एक रिश्ता था............... उनके बीच जो उन दोनों
की आँखों में हलके आंसू बनकर बहने लगा था...................
वह
महिला उसे देखकर रो रही थी, और वह भी अपने आंसू बहने से रोक नहीं पा रहा था. तभी उसे टोकते हुए एक व्यक्ति ने
कहा.................... अरे! आज तो खिला दिया है, तूने कल कौन खाना देगा इसे....................!!!
वह स्तब्ध रह गया, आखिर कहता भी क्या ऱोज आ भी नहीं सकता था उसे खाना देने और एक
वक़्त के बात दुसरे वक़्त के खाने का क्या.......................??? ऐसे ही सवाल
उसके मन में आने लगे थे.........!!! इसके बाद वह सिर्फ इतना ही कह पाया, हे राम
क्या हो रहा है ये....................!!! इसके बाद कोई शब्द नहीं थे उसके पास
कहने को और करने को तो कुछ था ही नहीं..................!!! वह घर लौट आया लगभग एक
महीने तक न तो वह ठीक से कुछ खा पा रहा था, और नहीं कुछ कर पा रहा
था..................!!! उसके जहन में तो बस वह हलके पीले रंग के एक छोटे से कपडे
से ढंकी उस महिला की यादें ही बसी थी......वह आज तक यही सोच रहा है, कि आखिर उसने
कुछ खाया होगा या नहीं हिम्मत नहीं हो रही थी उस तक जाने की, क्योंकि अब उसमें
इतनी ताक़त नहीं थी कि वह दोबारा उसे उस दयनीय हालत में देख पाए...इसी डर से वह
किसी से बात भी नहीं कर रहा था. बताना नहीं चाहता वह अपनी इस परेशानी को किसी भी
व्यक्ति से यहाँ तक कि अपने जिगरी दोस्तों से भी नहीं, क्योंकि उसे पता था कि वह
सभी उसका मज़ाक बनाएंगे उसका ही नहीं उस महिला का भी जो लाचार है, किस्मत के मारी
है. अगर वह किसी से कहता भी है तो सब बस यही कहेंगे यह एक थोड़ी है
भाई..........................न जाने कितनी ही और महिलाएं हैं, हमारे यहाँ जो इससे
भी बद्तर हालत में हैं. उसे केवल खाना ही नहीं मिल रहा है, कई तो ऐसी हैं, जिनके
साथ न जाने क्या क्या किया जा रहा है, सडकों पर...............!!! बस यही वो सुनना
नहीं चाहता था, क्योंकि एक महिला का दर्द उससे सहा नहीं जा रहा था, तो ऐसी अनेकों महिलाओं
का कैसे सहेगा.
दिन बड़ी तेज़ी से बीत रहे थे, उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी. उसे मिलना था उस
महिला से, वह निकला और उसी बस में जा बैठा, फिर से वाही नज़ारे घूम रहे थे उसके
सामने...........................अचानक से बस रुकी......................................उतरो..............उतरो
बस यहीं तक है.....................सब लोग खाली कर दो बस
को..........................जोर से आती इस आवाज़ से उसकी नींद खुली........................!!!
वह बड़ी तेज़ी से बस से उतरा और भाग कर उसी रेहड़ी के पास जाकर रेहड़ी पर काम कर रहे
छोटे बच्चे से बोला............................वो औरत कहाँ
है.....................??? जो यहाँ से खाना उठाकर खाती
थी............................अरे! कौन साब...................मुझे नहीं
पता....................बच्चे ने जवाब देते हुए अपना काम जारी
रखा.................अरे अरे वो जो इस कूड़ेदान में से खाना उठाकर खाती
थी.........................बेचैनी भरे स्वर में फिर से उसने पूछा........!!! तभी
उसी कंडक्टर ने जिसकी बस में वह पहली बार यहाँ आया था, उसे पहचान कर कहा.......................वह
तो मर है भाई........................कई दिनों से भूखी थी...............जब
बर्दाश्त नहीं हुआ तो यहीं अपना दम तोड़ दिया, आज ही
नगर निगम की गाड़ी उसे उठा कर ले गई है.........इतना सुनते ही घुटने अपने आप मुड़
गए.....................आँखें नदिया बन गई....................और जीवन पर मानो उदासी
का पहाड़ गिर गया हो उसके........................!!! अब किसी से कुछ कहने और पूछने
को कुछ भी नहीं था. पैदल ही चल दिया..........अपने घर की ओर फिर कभी नहीं मिला वह
किसी को न तो अपने घर वालों को और न ही किसी रिश्तेदार को.....................सबने
बहुत ढूंढा...................पर वह जा चूका था बहुत दूर..................एक
अज्ञात खोज में...............To be continued…========================================
2. दंगों में फंसे मासूमों की
व्यथा...
(लघु कथा)
बाबू खां बेसुध भागता
हुआ.............रामदीन के घर में घुसा और छिपने के लिए कोई ऐसा स्थान ढूँढने लगा
जहां उसे कोई देख न पाए...............रामदीन ने पूछा अरे बाबू का हुआ भाई..........का
हुआ??? बताओ तो सही...........!!! हट जाओ.........नहीं...............नहीं मेरे
पास आओ मुझे कहीं छिपा दो भाई...........!!! लडखडाती जबान और डरे हुए स्वर में
बाबू बोला. इतना घबराया हुआ था मानो उसकी जान को कोई ख़तरा हो..............अरे हुआ
का बताओगे नाही तो कैसन मालूम होगा........!!! कि हुआ हुआ का है..........काहे
इतना घबरा रहे हो कोनो परेशानी है का....................रामदीन ने जवाब मांगते
हुए पुछा. कुछ मत कहो बस कहीं छिपा लेओ. इन दोनों कि बात पूरी भी नहीं हुई थी कि
अचानक जोर से दरवाजे से आवाज़ आई...........................बाहर निकल हमें पता है
तू इसी घर में छिपा है. इस पर बाबू की सांसे और तेज़ हो गई, डर के मारे दांत कडकडाती
सर्दी में भी उसके माथे से पसीना, उसकी कलमों से होता हुआ ओके चेहरे पर आ रहा था. तभी
दरवाजे से आती आवाज़ को सुनकर रामदीन बोला..................कौन है भाई....................कौन
चाहिए तुमको.....................??? अबे दरवाज़ा खोल…………….!!! रामदीन हम जानते हैं
तूने उसे अपने घर में छिपा रखा है...........बाहर निकाल उसे......आज नहीं
छोड़ेंगे..............!!! मार देंगे साले सब को.........कांपती आवाज़ में.......पसीने
से तर-बतर.......................बाबू...................खिस्याते हुए
बोला...................रामदीन दरवाज़ा मत खोलना......मुझे मार देंगे ये
लोग..............!!! अरे काहे मार देंगे................रामदीन दरवाज़े की तरफ
बढ़ा...............तभी बाबू भागा.............और रामदीन का हाथ पकड़ के बोला नहीं
भाई.................मुझे मार देंगे ये लोग..................!!! शायद बाबू जानता
नहीं था कि बाहर क्या हुआ, शायद वो उस हिंसक घटना और आगजनी से अनभिज्ञ था जो चार
दिन पहले...................चोपाल के एक मंदिर से आरम्भ हुई थी. शायद इस लिए भी
जनता नहीं था क्योंकि आज ही वो अपनी पत्नी को उसके मायके छोड़कर चार दिन बाद लौटा
था. और उसके लौटते लौटते हिंसा कुछ शांत हो चुकी थी................आते समय उसने
पुलिस के जंजाल को देखा तो था पर सोचा था कि....................चुनाव आने वाले
हैं शायद कोई रैली होगी इसीलिए इतनी पुलिस है. बाबू ने रोते हुए कहा सब को मार
दिया भाई...............सब को........कोई नहीं बचा..........................आबिदा
को तो रोंद डाला इन हैवानो ने और राशिद में मासूम बच्चे को तेज़ाब से जला
दिया.............मेरी बेटी और बीवी को भी मार डाला...............रामदीन ने कहा
तो तुम कहाँ छिपे थे इतने दिन....................बस भाग रहा....................भईया................भाग
रहा था.
जहां भी देखा वहाँ
लाश दिखी, किसी को नहीं छोड़ा.....................अंधे लोगों..................अपाहिजों...............बच्चों
को भी कोख में ही मार दिया........!!! तेज़ाब से जला डाला है सारे गाँव
के?????????????को......................काहे मार रहे हैं का हुआ जो इतना बड़ा
हिंसा हो रहा है....................का कोनों लड़ाई हुई हैं दोनों मा.......................???
रामदीन ने गंभीर होते हुए पूछा..........................!!! सारी लड़ाई वो लड़की के
कारन शुरू हुआ है.......................जो मारी गई थी...................कुछ दिन
पहले.........................कुछ लड़कों के दुष्कर्म के कारन...................तो
तुम्हारा का दोष है इसमा..................??? रामदीन ने दरवाजे की तरफ बढ़ते हुए
कहा.........................बाबू तभी बोला भाई दरवाज़ा न
खोलना.....................और आवाज़ भी न करो......................नहीं तो उन्हें
शक हो जाएगा.....................कि हम सच मा इंहा हैं...............!!! अरे हम
बात करता हूँ ठहरों तो सही.............रामदीन आगे बढ़ा.....................!!! नहीं
नहीं रामदीन मान लो हमारी बात भाई समझा करो....................!!! बस हम ही बचा
हूँ........................और कोनों बाकी नहीं है.....................आधे भाग गए
हैं.........................ये हमें मार देंगे...........................बाबू
बोला.
तभी दरवाजे से आ रही
आवाजें कम हुई....................लगा अब बाहर कोई नहीं है....................तो रामदीन ने कहा चलो अब हम देखता
हूँ........................तभी डरा हुआ बाबू बोला तुम्हारा बहुत बहुत धन्यवाद रामदीन
हैं तुम्हारा एहसान कभी नहीं भूलूंगा.........................!!! इतने बड़ी तेज़ी
से दरवाज़े पर लात लगी और दरवाजा खुल गया............................बाहर खड़े साड़ी
बातें सुन रहे सारे हिंसक हाथ में डंडे, तलवार और माथे पर लाल पट्टी बांधे हुए
अन्दर दाखिल हुए...........................रामदीन और बाबू खां..................दोनों
ही हक्के बक्के रहे गए..............................दंगाइयों ने हंसते हुए बाबू
से कहा हमारी लड़कियों को छेड़ते हो और साला तुम (रामदीन) उन्हें की मदद करते हो जो
हमारी लड़कियों को हत्या हैं.......................जिसने लड़की को मारा उसे मारो न
सबको क्यों मार रहे हो......................और तुम हो कौन हमने तो तुमको पहले कभी
गाँव में देखा नहीं...........................??? रामदीन..............दंगाइयों
से चिल्लाते हुए बोला....................!!! तभी उन दंगाइयों ने रामदीन और बाबू
दोनों को तलवारों से जख्मी कर दिया और जाते जाते घर को आग लगा
दी........................!!! दोनों तो मर गए पर भाई चारे की एक मिसाल कायम कर गए.........................!!!
गली से बाहर जाते जाते वो दंगाई कहते हैं चलो दो और कम हुए, हमारा काम हो गया. अब
किसी और घर में चलते हैं शायद ऐसे ही दो वहां भी मिल जायें.
Originally Published in:-
http://samachar-vichar.com
http://samachar-vichar.com/6615SV.html
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2. अनसुलझे सवाल!!!
कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी....... पैरों से चढ़ती ठण्ड हाथों के कम्पन से होती
हुई, दांतों की कड़कड़ाहट तक जा रही थी। घर से निकला तो देखा कोहरे
की सफ़ेद चादर ने सारे आसमान पर अपना अस्तित्व जमा रखा है। कदम आगे की ओर बढ़ने से
मना कर रहे थे, पर जाना भी जरुरी था, आज सप्ताह का पहला दिन सोमवार था..... अगर ऑफिस न जाता तो प्रेम पत्र (नोटिस)
मिलने के पूरे आसार थे। क्योंकि पिछले दिनों कुछ छुट्टियों के कारण मैं सबकी नज़रों
में आ गया था। ऑफिस पहुँचने ही वाला था कि अचानक मेरी नज़र एक बच्चे पर पड़ी....
करीब सात से आठ साल के बीच का होगा,
एक पतली सी कमीज, छोटा सा निक्कर पहने नंगे पैर पास ही से गुजर रही एक नाली से खाली बोतल और, गन्दी पन्नियां निकालकर अपनी कमर पर लटके झोले में डाल रहा था। जाहिर है ठण्ड
के कारण नाली पानी भी ठंडा ही होगा। मगर उसका बदन जैसे हीटर था, उसपर उस कड़कड़ाती ठण्ड का कोई असर नहीं हो रहा था।
बड़ा मार्मिक दृश्य था। जब मैं ठण्ड के मारे ऊन के मोटे मोटे परिधान पहने भी
अपने कम्पन को नहीं रोक पा रहा था तो ये बच्चा कैसे सहन कर रहा है? क्या इसे ठण्ड नहीं लगती? और अगर लगती है तो उसे वह कैसे उसे रोके है।
ऐसे ही न जाने कितने ही सवाल मुझे कुरेदने लगे। मैं जवाब कहाँ से लाता, कौन देता मेरे सवालों के जवाब?
ये ही सब सोच-सोचकर मैं
बड़बड़ाने लगा था। इतने वो भी मेरी आँखों की पहुँच से कहीं दूर जा चुका था। मैं
जल्दी ही भाग कर गया पर वो मुझसे बहुत दूर जा चुका था, उसे अगर भागकर पकडने की कोशिश करता तो
ऑफिस के लिए लेट हो जाता, पर मन नहीं मान रहा था मेरा। वह अपने सवालों के
जवाब मांग रहा था। मुझे बार-बार यह अनुभूति हो रही थी। मैं उस दिन साफ़ देख सकता था
अपने मन की उत्सुकता को, ऐसा पहली बार हो रहा था मेरे साथ।
घटा तो बहुत कुछ मेरे अपूर्ण जीवन में पर ऐसा कुछ कभी नहीं हुआ था.......!!!
मैं उस वक़्त भूल गया था अपने ऑफिस और वहाँ मेरा इंतज़ार करते लोगों को। मैं इतना
विचलित शायद इसलिए भी था क्योंकि शायद उस लड़के जैसा कुछ मेरे साथ भी घट चुका था।
अपनी मज़बूरियों और व्यथा को तो मैं जैसे-तैसे भूल गया था, पर इस लड़के को मैंने खुद के जीवन के कुछ ज्यादा ही पास पाया। मैं वहीँ खड़ा का
खड़ा रह गया था, कदम न आगे की ओर बढ़ रहे थे न ही पीछे हट रहे थे, मानो जैसे किसी अदृश्य
शक्ति ने जकड लिया हो मुझे।
सोच रहा था उसी लड़के के बारे में, क्या देखता हूँ कि वो
अचानक ही फिर से मेरे सामने आ खड़ा हुआ, शायद कुछ भूल गया था, या यह भी हो सकता है की मेरे मन की आवाज़ और पुकार सच्ची थी जो ईश्वर के कानों
तक पहुँच चुकी थी और उसी ने उसे फिर से मेरे पास भेज दिया था, मेरे अनसुलझे सवालों के जवाब देने के लिए।
मैं उसकी और दौड़ा और उसके करीब जाकर हांफता हुआ और अपने कई सवाल उसपर दागते
हुए बोला........ ऐ लड़के क्या नाम है तेरा?, कहाँ रहता है तू?, क्या तू अकेला है?, क्या तू पढ़ाई नहीं करता?, कब से कर रहा है ये काम?, तेरा परिवार कहाँ है?, यहाँ कैसे पहुंचा? कितना कमा लेता है दिनभर में? और सबसे अहम क्या तुझे ठण्ड नहीं लग रही? और जो भी मेरे मन में आया
मैंने पूछ लिया उससे। मुझे देखकर वो भी अचम्भे में था। मेरी ओर मासूम आँखों से
देखता हुआ गुस्से से बोला........ तुम्हें क्या करना है, जाओ साब काम का टाइम है बीच में भंकस मत करो। उसकी मासूमियत देखकर मैं चकित भी
था और मुझे उसपर तरस भी आ रहा था। मैं करता भी क्या.......... वो मेरी बात सुनने
को तैयार ही नहीं था, शायद जल्दी में था उस कचरे को बेचने भी तो जाना
था उसे, शायद यही टाइम था उसका कबाड़ी की दूकान पर जाने का, जो मेरे दिमाग में चल रहा था मैंने उससे वही पूछा क्या बेचने जाओगे ये सब?......... बोला हां.......... इस टाइम के बाद भीड़ बढ़ जाती है हमें
मारने के लिए कुत्ते पीछे पढ़ जाते है। बस ये सुबह का टाइम ही है, और कबाड़ी वाला भी इसी टाइम ले लेता है ये सब, चौक पर पुलिस आने के बाद
मना कर देता है..........फिर मेहनत करने का कुछ भी नहीं मिल पाता। मैंने सोचा चलो
कुछ तो बताया, पर वो वाकई जल्दी में था।
मैंने कहा क्या मैं तुम्हारे साथ चल सकता हूँ, क्या साब शिकायत करनी है
क्या मेरी, मैंने तुम्हारे यहाँ से कुछ भी नहीं चुराया है, और अब मैंने चोरी करनी छोड़ दी है पहले करता था और वो भी गलत काम के लिए नहीं, अपने छोटे भाई का पेट भरने के लिए, क्या तुमसे छोटा भी कोई
भाई है? मैंने चोंकते हुए उससे पूछा। हां और क्या साब आपका कोई छोटा
भाई नहीं है क्या? उसकी बातें सुनकर उसके लिए मेरा स्नेह और बढ़
गया, मैं भूल चुका था कि मुझे ऑफिस भी जाना है....... एक घंटा
लेट हो चुका था और अब जाने का भी कोई फायदा नहीं था, मैं जानता था कि मेरी
नौकरी जा चुकी है। पर फिर भी मैं उसके पीछे जा रहा था अपना अंजाम जानकार
भी........... दरअसल वो खींच रहा था मुझे अपनी ओर और मैं बिना किसी डोर के खींच भी
रहा था। मुझे जानना था उसे पूरी तरह। मैं उसके पीछे लगा रहा, समय बीतता गया और मैं अपने सवालों से उसे परेशान करता रहा। चाहकर भी मैं उससे
दूर जाना नहीं चाह रहा था........ जैसे मैं उसे जानता था, जैसे वो मेरा कोई बिछड़ा हुआ जानने वाला था। मैं उसके पीछे ऐसे लगा था जैसे वो
मेरी मेहबूबा हो, जो नाराज़ है मुझसे और मैं उसे मनाने की भरसक
कोशिशें कर रहा हूँ। वो मुझसे भाग रहा था और मैं उसके लिए। आखिर में जब वो ज्यादा
परेशान हो गया तो उसने कह ही दिया...................... मेरा पीछा छोड़ दो, मैं तुम्हें नहीं जानता हूँ,
पर मैं पुलिस को जरुर
जानता हूँ, तुम मुझे बच्चे उठाने वाले लग रहे हो, मैं शोर मचा दूंगा, चले जाओ यहाँ से, पर मुझपे तो जैसे कोई धुन
सवार हो चुकी थी....................उसके बारे में जानने की।
अरे रुको और थोड़ी देर बैठो मेरे साथ......................मैंने कहा।
क्यों क्यों बैठूं................................??? उसने गुस्से में जवाब दिया।
जाओ यहाँ से साब........................कहते हुए उसने अपने कचरे का सौदा कर
लिया करीब 10 रुपये में।
मैंने कहा, ये क्या काफी हैं तुम्हारे
लिए................................!!!
अरे साब तुम्हें क्या करना है,
पूरे हैं या नहीं मेरे
हैं। चोरी तो नहीं किया है न............................ और मैं तुम्हें क्यों
बताओ कहता हुआ 10 रुपये लेकर चल दिया अपने घर कि ओर...................!!! वो नहीं
चाहता था कि मैं उसके पीछे उसके घर तक जाऊं इसलिए एक चौपाल पर वह रुक गया, समझदार अपनी उम्र से कुछ ज्यादा ही था......कहने लगा क्या चाहिए साब मैं अपने
पैसे तुम्हें नहीं दूंगा, ये मेरे हैं। मेरे और मेरे भाई के हम दोनों
इससे ही खाना खायेंगे, पर कल का उधार भी है तो कम ही खाना
मिलेगा......... मैं तुम्हें दे दूंगा तो हमें भूखा ही रहना पडेगा कल तक के
लिए..................... मैंने अपने आंसुओं पर काबू करते हुए दबे से स्वर में कहा
अरे नहीं मुझे तुम्हारे पैसे नहीं चाहिए.............. तो क्यों बस्ता वास्ता टांग
कर सुबह से मेरा पीछा कर रहे हो?
उसने
कहा..................!!! मैंने फिर उसे समझाते हुए कहा मैं तो बस तुम्हारे बारे
में कुछ जानना चाहता हूँ.............. पर मैं कुछ नहीं बताऊंगा, उसने जवाब दिया......... मैंने सूना है आजकल नाम, पता पूछने के बहाने बच्चों को उठा ले जाते हैं और मज़दूरी करवातें है उनसे। मैं
नहीं जाउंगा तुम्हारे साथ, अगर मैं चला गया तो मेरे भाई का क्या होगा, वो तो अकेला हो जाएगा न, मुझसे छोटा है। अभी भी मेरी राह देख रहा होगा।
अच्छा साब मैं चलता हूँ...............कहता हुआ चौपाल से कूदा और दौड़ते हुए बड़ी
तेज़ी से भीड़ में खो गया.........................अरे रुको कहता मैं अपना सा मुंह
लिए उसकी ओर देखता रह गया......................खोजता रहा भीड़ में उसे पर वो रुकने
वाला कहाँ था........................चला गया अपने भाई के पास...............................!!!
वो जा तो रहा था पर साथ लिए जा रहा था मेरे सारे सवालों को अनसुलझा
छोड़कर....................!!! इतना मासूम था कि मैं शायद ही उसे कभी भूल पाउँगा, अपने भाई के प्रति उसका प्रेम मुझे झकझोर गया, क्या हम भी किसी को उसकी
भाँती प्यार कर सकते हैं..............................मैं बस खुद से ये सवाल पूछ
रहा था। जवाब तो दिया नहीं उसने,
पर एक और सवाल जरुर दे
गया मेरे अनसुलझे सवालों की सूची के लिए।
Originally Published in Pnews.in
http://www.pnews.in/%E0%A4%85%E0%A4%A8%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%9D%E0%A5%87-%E0%A4%B8%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B2-%E0%A4%95%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80/
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कुछ दिन पहले अपने कुछ पुराने दोस्तों से मिलने का प्रोग्राम बना. सभीकी रजामंदी सेसीपी जाने पर मुहर लगी, तो हम पाँचों निकल पड़े अपने अपने घरों से सीपी के सेंट्रल पार्क की ओर, सभी लोग समय से पहुँच गए थे. मैं कुछ कारणों की वजह से उनसे थोड़ा देर में वहां पहुंचा. लगभग तीन साल के बड़े अंतराल के बाद हम मिल रहे थे.
लगभग 2 घंटे के बाद वहां से कहीं ओर जाने का कार्यक्रम बना, तो सभी ने मन बनाया, सात दिनों के लिए खुली सीपी की वो टनल (सुरंग) देखने का जिसके कारण पिछले पांच सालों से सीपी में ख़ुदाई का काम निरंतर चल रहा था. उसी काम को दिखाने के लिए नगर पालिका(एनडीएमसी)ने ये सुरंग खोल रखी थी. सिक्यूरिटी चेकिंग से होते हुए हम पांचों जा पहुंचे. लगभग 100 मीटर जाने के बाद सुरंग के अन्दर चल रहे किसी काम के कारण हमें बाहर आना पड़ा शायद यही मंज़ूर था उस समय इश्वर को भी, और अगर उस वक़्त हम बाहर नहीं आते और आगे चले जाते तो शायद हमारी मुलाक़ात उस बच्चे से न हो पाती जो सरकार के सर्वशिक्षा अभियान की पोल खोल रहा था. सड़को पर पेन भेच रहा था. हम वहां रुके और मेरे एक दोस्त ने उससे उसका नाम पूछा तो उसने कहा “करण”, उसने कहा नाम तो अच्छा है, उम्र कितनी हैं तेरी तो बहुत तेज़ी से जवाब आया 8 साल शायद पहले उससे इस तरह किसी ने बात नहीं कि थी, और पहली बार वह किसी से इतनी सूकून से बात कर रहा था. वरना लोगों की बदतमीजी और ताने तो उनकी किस्मत में लिख कर ही आये हैं. बोलनेमें बहुत तेज़ था हर सवाल का जवाब फट से दे रहा था. शायद हमसे इसलिए बात कर रहा था कि उसे लगता था कि ये लोग तेरे पेन खरीद लेंगे. मेरे एक दूसरे दोस्त ने उससे पूछा पढता है या नहीं, फिर उसने फुर्ती दिखाई और कहा कि..........................‘हां पढता हूँ’ फिरमैंने कहा कहाँ तो बोला........................कश्मीरी गेट पर एक स्कूल है सरकारी उसमे पढता हूँ. मैं उसके द्वारातेज़ी से दिए जाने वाले जवाबों से बहुत प्रभावित हुआ. मन कर रहा था इससे और बात करूँ पर तभी मेरे एक दूसरे दोस्त ने कहा, के यार ज़रा देखो गर कहीं कोई शब्द सीखने वाली किताब मिले तो ले आओ. मैं सीपी के गोल चक्कर पर उस किताब को ढूंढने लगा, एक दूकान से दूसरी दूकान, दूसरी से तीसरी और न जाने कितनी ही दूकान खोज ली पर एक किताब का नामोंनिशान नहीं था. इसे विडंबना ही कहेंगेउस पूरे गोल चक्कर में विदेशी उपन्यासों की तो भरमार थी मगर एक बच्चे के पढने और सीखने के लिए ‘अ,ब, स’की एक मामूली सी किताब नहीं मिली. मैं वापस आया और किताब न मिलने की बात सबको बता दी. करण उत्सुक था अपने पेन बेचने के लिए मोल भाव भी एक बड़े वयस्क की भाँती कर रहा था. बात आगे बढ़ी और उससे पूछा गया कि कहाँ के हो तो जल्दी से बोला राजस्थान से, यहाँ किसके साथ और कैसे पहुंचा तो बोला माँ के साथ आया हूँ गाँव में खाने को नहीं मिलता था, माँ को मेरा बाप मारता था तो माँ मुझे अपने साथ यहाँ ले आई. पढने के बार में सावल करने पर कहने लगा कि पढ़ाई करने के टाइम नहीं मिलता जब स्कूल जाता हूँ तो यहाँ नहीं आ पाता और यहाँ नहीं आता तो खाना नहीं मिलता. माँ को खाना भी देना होता है, फिर मेरे एक दोस्त ने पूछा माँ क्या करती है तो बोला यही करती है, कहाँ पर?..............तो बोला यहीं मेरे साथ.................कितने कमालेता है?.....................कभी 100 कभी 200..........और माँ वो भी इतना ही. करणएक छोटा सा मासूम बच्चा जिसका जीवन पेन बेचने जैसे काम से अपना जीवन अँधेरे में ढकेलने को मजबूर है. ये अकेला नहीं है. ना जाने कितने ही बच्चेसीपी के उजाले में अपने जीवन में अँधेरा ला रहे हैं. उससे पूछा गया कि ये पह कहाँ से और कितने में लाता है तो इतना मासूम कि इतना भी नहीं जानता था किकिसे बताना चाहिए और किसे नहीं. बोला एक दूकान है उससे खरीदता हूँ, दाम मुझे भी याद नहीं रहा, उसका चेहरा इतना मासूम था कि मैं उसे ही देखता रहा, और उसकी बातों को ही सुनता रहा. हमने उसके 12 पेन 50 रुपये में ख़रीदे. मगर बहुत चालक भी था पैसा मिलते ही न जाने कहाँ गम सा हो गया. ढूंढने से भी नहीं मिला. उसके जाने के बाद कई सवाल हमारे जहन में खड़े होने लगे, क्या यही है सर्व शिक्षा अभियान की सच्चाई? क्या यही है सरकार कि बाल सुरक्षा की योजनायें, जिनकी सच्चाई कुछ और ही है? और कितने बच्चे हैं ऐसे जो इस तरह के कामोंमें लिप्त हैं. ये द्रश्य तो सरकार के उन सभी वादों का खंडन करती है. जो सरकार करती आई है. इस दिन को हम ख़ास भी कह सकते हैं जब हमारी मुलाक़ात उस बच्चे हुई ये ख़ास दिन था दिल्ली की नई सरकार के शपथ लेने का दिन शायद मेरी ये बात उस सरकार तक पहुंचेगी और हमारीनई सरकार इस ओर कुछ ध्यान देगी.
जो भी हो इस बच्चे ने बहुत कुछ बयान कर दिया. न कहते हुए भी वो न जाने क्या क्या कह गया. जगा गयाहमारे अन्दर के उस इंसान को जो न जाने कब से सोया हुआ था. अब बस ऐसे अनगिनत बच्चों को तलाश करना है, और उन्हें इस अंधरे से निकाल कर उजाले में लाना हैं. मैं सभी से गुजारिश करता हूँ कि ऐसे बच्चों को नज़रअंदाज न करें. उनकी मदद करें ताकि वह निकल सकें इस मंज़र से.
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1. दिल्ली का सीपी और एक मासूम बच्चा!
कुछ दिन पहले अपने कुछ पुराने दोस्तों से मिलने का प्रोग्राम बना. सभीकी रजामंदी सेसीपी जाने पर मुहर लगी, तो हम पाँचों निकल पड़े अपने अपने घरों से सीपी के सेंट्रल पार्क की ओर, सभी लोग समय से पहुँच गए थे. मैं कुछ कारणों की वजह से उनसे थोड़ा देर में वहां पहुंचा. लगभग तीन साल के बड़े अंतराल के बाद हम मिल रहे थे.
लगभग 2 घंटे के बाद वहां से कहीं ओर जाने का कार्यक्रम बना, तो सभी ने मन बनाया, सात दिनों के लिए खुली सीपी की वो टनल (सुरंग) देखने का जिसके कारण पिछले पांच सालों से सीपी में ख़ुदाई का काम निरंतर चल रहा था. उसी काम को दिखाने के लिए नगर पालिका(एनडीएमसी)ने ये सुरंग खोल रखी थी. सिक्यूरिटी चेकिंग से होते हुए हम पांचों जा पहुंचे. लगभग 100 मीटर जाने के बाद सुरंग के अन्दर चल रहे किसी काम के कारण हमें बाहर आना पड़ा शायद यही मंज़ूर था उस समय इश्वर को भी, और अगर उस वक़्त हम बाहर नहीं आते और आगे चले जाते तो शायद हमारी मुलाक़ात उस बच्चे से न हो पाती जो सरकार के सर्वशिक्षा अभियान की पोल खोल रहा था. सड़को पर पेन भेच रहा था. हम वहां रुके और मेरे एक दोस्त ने उससे उसका नाम पूछा तो उसने कहा “करण”, उसने कहा नाम तो अच्छा है, उम्र कितनी हैं तेरी तो बहुत तेज़ी से जवाब आया 8 साल शायद पहले उससे इस तरह किसी ने बात नहीं कि थी, और पहली बार वह किसी से इतनी सूकून से बात कर रहा था. वरना लोगों की बदतमीजी और ताने तो उनकी किस्मत में लिख कर ही आये हैं. बोलनेमें बहुत तेज़ था हर सवाल का जवाब फट से दे रहा था. शायद हमसे इसलिए बात कर रहा था कि उसे लगता था कि ये लोग तेरे पेन खरीद लेंगे. मेरे एक दूसरे दोस्त ने उससे पूछा पढता है या नहीं, फिर उसने फुर्ती दिखाई और कहा कि..........................‘हां पढता हूँ’ फिरमैंने कहा कहाँ तो बोला........................कश्मीरी गेट पर एक स्कूल है सरकारी उसमे पढता हूँ. मैं उसके द्वारातेज़ी से दिए जाने वाले जवाबों से बहुत प्रभावित हुआ. मन कर रहा था इससे और बात करूँ पर तभी मेरे एक दूसरे दोस्त ने कहा, के यार ज़रा देखो गर कहीं कोई शब्द सीखने वाली किताब मिले तो ले आओ. मैं सीपी के गोल चक्कर पर उस किताब को ढूंढने लगा, एक दूकान से दूसरी दूकान, दूसरी से तीसरी और न जाने कितनी ही दूकान खोज ली पर एक किताब का नामोंनिशान नहीं था. इसे विडंबना ही कहेंगेउस पूरे गोल चक्कर में विदेशी उपन्यासों की तो भरमार थी मगर एक बच्चे के पढने और सीखने के लिए ‘अ,ब, स’की एक मामूली सी किताब नहीं मिली. मैं वापस आया और किताब न मिलने की बात सबको बता दी. करण उत्सुक था अपने पेन बेचने के लिए मोल भाव भी एक बड़े वयस्क की भाँती कर रहा था. बात आगे बढ़ी और उससे पूछा गया कि कहाँ के हो तो जल्दी से बोला राजस्थान से, यहाँ किसके साथ और कैसे पहुंचा तो बोला माँ के साथ आया हूँ गाँव में खाने को नहीं मिलता था, माँ को मेरा बाप मारता था तो माँ मुझे अपने साथ यहाँ ले आई. पढने के बार में सावल करने पर कहने लगा कि पढ़ाई करने के टाइम नहीं मिलता जब स्कूल जाता हूँ तो यहाँ नहीं आ पाता और यहाँ नहीं आता तो खाना नहीं मिलता. माँ को खाना भी देना होता है, फिर मेरे एक दोस्त ने पूछा माँ क्या करती है तो बोला यही करती है, कहाँ पर?..............तो बोला यहीं मेरे साथ.................कितने कमालेता है?.....................कभी 100 कभी 200..........और माँ वो भी इतना ही. करणएक छोटा सा मासूम बच्चा जिसका जीवन पेन बेचने जैसे काम से अपना जीवन अँधेरे में ढकेलने को मजबूर है. ये अकेला नहीं है. ना जाने कितने ही बच्चेसीपी के उजाले में अपने जीवन में अँधेरा ला रहे हैं. उससे पूछा गया कि ये पह कहाँ से और कितने में लाता है तो इतना मासूम कि इतना भी नहीं जानता था किकिसे बताना चाहिए और किसे नहीं. बोला एक दूकान है उससे खरीदता हूँ, दाम मुझे भी याद नहीं रहा, उसका चेहरा इतना मासूम था कि मैं उसे ही देखता रहा, और उसकी बातों को ही सुनता रहा. हमने उसके 12 पेन 50 रुपये में ख़रीदे. मगर बहुत चालक भी था पैसा मिलते ही न जाने कहाँ गम सा हो गया. ढूंढने से भी नहीं मिला. उसके जाने के बाद कई सवाल हमारे जहन में खड़े होने लगे, क्या यही है सर्व शिक्षा अभियान की सच्चाई? क्या यही है सरकार कि बाल सुरक्षा की योजनायें, जिनकी सच्चाई कुछ और ही है? और कितने बच्चे हैं ऐसे जो इस तरह के कामोंमें लिप्त हैं. ये द्रश्य तो सरकार के उन सभी वादों का खंडन करती है. जो सरकार करती आई है. इस दिन को हम ख़ास भी कह सकते हैं जब हमारी मुलाक़ात उस बच्चे हुई ये ख़ास दिन था दिल्ली की नई सरकार के शपथ लेने का दिन शायद मेरी ये बात उस सरकार तक पहुंचेगी और हमारीनई सरकार इस ओर कुछ ध्यान देगी.
जो भी हो इस बच्चे ने बहुत कुछ बयान कर दिया. न कहते हुए भी वो न जाने क्या क्या कह गया. जगा गयाहमारे अन्दर के उस इंसान को जो न जाने कब से सोया हुआ था. अब बस ऐसे अनगिनत बच्चों को तलाश करना है, और उन्हें इस अंधरे से निकाल कर उजाले में लाना हैं. मैं सभी से गुजारिश करता हूँ कि ऐसे बच्चों को नज़रअंदाज न करें. उनकी मदद करें ताकि वह निकल सकें इस मंज़र से.
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