सोमवार, सितंबर 29, 2014

जितने भी ग़म सहते रहे...

जितने भी ग़म सहते रहे

जितने भी ग़म सहते रहे, कलम से सब बहते रहे.
करके बहाना नज़्म का, हम पन्नों से लिपटे रहे.

दर्द क्या है हमने जाना, दूर होकर ऐ खुदा.
अपने ही झूले से हम, सूली बन लटके रहे.

हो गया तबादला इस दर्द से उस दर्द में.
बनके लहू ये आंसू, आँखों से गिरते रहे.

जिसका लिखा है ग़ज़लों में वो नाम बस तेरा ही है.
तुझे इतना ही बस बताने को, हम उम्रभर लिखते रहे.

रात दिन जो था मुझे वो इंतज़ार है तेरा.
किवाड़ों पर आंखें बिछी, सारे दिए बुझते रहे.

ना चैन आये है मुझे न आये है करार ही.
तेरी ही तलाश में अब दर बदर फिरते रहे.

ज़िंदा लाश बन गया है “आशू” उसे ये क्या हुआ.
अब चले जहां भी, वहीँ निशाँ पड़ते रहे.


-अश्वनी कुमार

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