गुरुवार, जनवरी 30, 2014

तेरी यादों को संजोकर


तेरी यादों को संजोकर भतेरा रख लिया
अब सच कहूँ तो जानम, मैं तो हूँ पक लिया.

तुझे देखता था अक्स में, तन्हाई में अपनी
सही समय था, मैं तेरे चंगुल से बच लिया.

तू थी बड़ी चालाक, मुझको बना दिया
और सोचने लगी की इक और फंस लिया.

मैं रो लिया बहुत, बहुत आंसू बहा लिए
अपनी ही बातें याद कर, अब खुद पर ही हंस लिया.

‘आशू’ अगर अब दर्द हो तो दंग न होना
ये मान लेना गंद था, है जो निकल लिया.

शुक्रवार, जनवरी 17, 2014

दौर हैं बदल रहे...


आज अचानक से जहन में एक महान साहित्यकार, कवि, ग़ज़लकार ‘दुष्यंत कुमार’ की एक पंक्ति आ गयी. उस ग़ज़ल की उस पंक्ति को अपनी जुबान से अगर मैं बोल भी लेता हूँ तो मेरे रोंगटें खड़े हो जातें हैं. वो सदाबहार पंक्ति है, ‘हो गई है पीर पर्बत सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकालनी चाहिए’. मैं दुष्यंत कुमार के पैरों की धुल भी नहीं हूँ. और न कभी भी उनके बराबर खड़ा हो सकता हूँ आज वह हमारे बीच में नहीं है, पर प्रेरणा हैं हम जैसों के लिए. मैं माफ़ी चाहता हूँ हर उस शक्स से जो मेरी इस गुस्ताखी को पढेगा. पर मैं अपने को रोक नहीं पा रहा हूँ, मैं आज इस ग़ज़ल में कुछ पंक्तियाँ जोड़ रहा हूँ. ये पंक्तियाँ जोड़ने से यह ग़ज़ल मेरी न हो जायेगी, रहेगी ये उस महान व्यक्तित्त्व कि ही जिसने इसकी नींव को रखा है. मैं एक बार फिर से सबसे माफ़ी मांगना चाहता हूँ. पंक्तियाँ इस प्रकार हैं.


दौर हैं बदल रहे, पुराने से नए की ओर
बंद थी, जो अब तलक, किस्मत वो खुलनी चाहिए.


रोक लें गर, हम किसी को दलदल-ए-अपराध से
एक सुर में, ये हवा चहुं ओर बढ़नी चाहिए.


रौशनी जो छिप गई थी, बादलों की आड़ में
फिर से जीवन बनके हर इंसा पे पड़नी चाहिए.


हर कहीं, हर ओर हरसू, चल पड़ी है जो लहर
चल पड़ी जो अब है तो कभी न थमनी चाहिए.


आम आदमी उठ खड़ा हुआ है, बदलाव को

झंझावत से आस की, ज्वाला न बुझनी चाहिए.

गुरुवार, जनवरी 16, 2014

उसे नारी हैं कहें

उसे नारी हैं कहें

जहां है त्याग, समर्पण, जहाँ है धैर्य बेहिसाब
यही है रूप-ओ-नारी, जिसे आता है यहाँ प्यार

कभी माँ-बाप, कभी भाई, कभी पति-बेटा
सहे विरोध है सबका, न करती कोई आवाज़

न जाने कब से सह रही थी जुल्मों सितम को
जो लड़े हक की लड़ाई उसे मलाला कहें

कभी सती, कभी पर्दा कभी रिवाजे-ए-दहेज़
ये हैं कुछ मूल आफतें जिन्हें सहती हैं रहे

समझ उपभोग की वस्तु, सभी निगाह रखें
हैं मार देते कोख में, कहाँ का ये है रिवाज़
अगर है हो गई पैदा, बंदिशे शुरू हुई
न चले गर ये इनपर सितम हर कोई करे    

लुटा के सांसे जो अपनी सिखा गई जीना
क्या भूल बैठें हैं उस निर्भया के त्याग को हम

है अनुपात दिन-ब-दिन बस घटने पर
न जाने होगा क्या जब नारी ही नहीं रहेगी?

हैं कई रूप, इन्हें लोग भी माने देवी
फिर भी क्यों न करें आदर, क्यों न सत्कार करें?
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originally Published in http://www.pravakta.com

शनिवार, जनवरी 11, 2014

आज उन पैरों को देखा जिनमें गांठें थी पड़ी

आज उन पैरों को देखा जिनमें गांठें थी पड़ी
अज उस व्यथा को जाना, सामने हरसू खड़ी.

आसमां भी रो पड़े माहौल है बनने लगा
आंसू हैं बहने लगे हर हाथ मांगे इक छड़ी.

पत्ता भी है पेड़ बनने का जुगाड़ हर रहा
उससे कहदो कलियाँ हैं जो पहले से इसपर अड़ी.

नांव माझी से कहे उस पार जाना है नहीं
डूबने के डर से वो इस ओर ही कब से सड़ी.

चलना था जिस ओर, आगे राह तो गुम हो गई
हम चले जिस ओर, उस ओर कभी न मुड़ी.

आग लगती है तो छाता है धुआं घना घना

इस धुएं के पार इक सुबह खड़ी है भुरभुरी. 

शनिवार, जनवरी 04, 2014

जब होके आस पास भी...

जब होके आस पास भी खला होगा
तभी तो रोने में फिर इक मज़ा होगा.

आँखें तेरी देखेंगी जब तड़पता मुझे
मैं सोचता हूँ वो कैसा सिलसिला होगा.

हो सामने हर वक़्त ऐसी बात नहीं
वो अक्स उसका मुझसे है बंधा होगा.

चलता तो हूँ पर न पता है राह मुझे
सही राह जो मिल जाए तो, क्या समां होगा.

उसके खतों के टुकड़ों में जब ढूंढूंगा खुद को

अब तो तभी ये हाल-ए-दिल बयां होगा.