मंगलवार, अक्तूबर 29, 2013

मैं छोड़ आया पीछे वो सारी कहानी

मैं छोड़ आया पीछे वो सारी कहानी 
जिससे जुडी थी मेरी ये जिंदगानी 

अभी तक जुडी थी ये साँसे भी उससे 
मगर अब ये गाडी है खुद ही चलानी 

कहते हैं होती मुहब्बत सभी को 
वही पार पाती जो होती रूहानी 

समझे थे हम उनको नादान यारों 
वो निकली यहाँ पर है सबसे सयानी 

पहले तो हमको बतानी नहीं थी 
लो अब ये कहानी सुनो मेरी ही जुबानी 

हम सोचते थे मुहब्बत मिली है 
पर खुदा को भी थी हमसे नफरत निभानी 

अब तक न सीखे थे इक भी सबक हम 
एक बार में ही इनकी दौलत कमाली 

कर तो दिया है खुद से अलग अब 
"आशु" कि ले लो तुम भी सलामी

त्राहि मची है चारों ओर,अब संत बन गए सारे चोर

त्राहि मची है चारों ओर 
अब संत बन गए सारे चोर 

बड़े बड़े खोलें हैं संघ 
जिनमे धन का न कोई छोर 

कहते हैं हम संरक्षण देंगे उन असहाय लोगों को 
जो हैं भूखे, जो हैं रोते खुद को ऐसा देखकर 

 त्राहि मची है चारों ओर 
अब संत बन गए सारे चोर 

बड़े बड़े हैं दान ये लेते 
बड़े बड़े घोटाले करते 

काले दो नंबर के धन को
पलभर में सफ़ेद ये कर डालें 

त्राहि मची है चारों ओर 
अब संत बन गए सारे चोर 

कहीं भी जाएँ वहीँ कमाएं 
जनता को देते धोखा 

लेते सत्संग का भी पैसा 
माने खुद को ईश्वर जैसा 

त्राहि मची है चारों ओर 
अब संत बन गए सारे चोर 

बेहिसाब हैं धन दौलत 
और बेहिसाब हैं घर बंगले 

बड़ी बड़ी गाडी में घूमें 
खुद को माने सिद्ध बन्दे 

त्राहि मची है चारों ओर 
अब संत बन गए सारे चोर 

बनते हैं ये धर्म कि मूरत
देखें न अपनी सूरत

सारे कुकर्म हैं इनके खाते 
अपने बच्चो को भी बांटें 

जो माने इनको धर्मात्मा 
वो मूरख जग में है आत्मा 

त्राहि मची है चारों ओर 
अब संत बन गए सारे चोर

रविवार, अक्तूबर 27, 2013

मोहब्बत पर ऐतबार करना नहीं

मोहब्बत पर ऐतबार करना नहीं 
जीना है मुझको है मरना नहीं।

जो-जो चला है राह पे इसकी 
वो कहता सबसे के चलना नहीं।

बहे इतनी आंसू हैं आँखों से मेरी 
के इक बूँद भी अब तो निकलता नहीं।

जहां खाई ठोकर वहीँ तो थी मंजिल 
क्या मंजिल पे अब है पहुँचना नहीं?

जो हो जाती तुमसे मुलाक़ात मेरी 
तो ऐसे यहाँ मैं मचलता नहीं।

किसपर करोगे भरोसा ओ यारों 
यहाँ पर कोई भी तो अपना नहीं।

कश्ती भी डूबी वहां पर थी मेरी 
जहां डूबे कोई, निकलता नहीं।

है अब भी समय "आशु" बोले है तुमसे
जो संभला न फिर वो संभलता नहीं।

तेरा नाम भूल न पाऊं


चाहूँ के न चाहूँ नाम तेरा मैं लिख ही जाता हूँ 
आईने के सामने ख़ुद को कभी न पाता हूँ।

रात दिन मैं दर-बदर, राहों में फिरता रहूँ 
क्यों अकेला खुद की बातें खुद को ही समझाता हूँ।

अब न आती नींद है न है मुझे करार ही 
खुद के दुःख को मैं कभी किसी से न बतलाता हूँ।

ऐसे गयी है छोड़कर जैसे न हो रिश्ता कोई 
टूट गया रिश्ता मेरा, क्यों फिर भी इसे निभाता हूँ?

हो गयी है दूर मुझसे फिर भी है गिला नहीं 
तेरे बिन जीना पडेगा, इस बात से घबराता हूँ।

इक गीत बन गया हूँ ग़मगीन राहों में यहाँ 
इसको ही अब सुनता हूँ और सबको मैं सुनाता हूँ।

हिज़्रा-ए-ग़म को "आशु" भूल न पाऊं कभी 
चाहूँ भुलाना मैं मगर खुद ही को भूल जाता हूँ।

हिज्र



तेरे हिज्र में हमने जीकर देखा 
खून बने आंसूओं को पीकर देखा 

कतरने जो बन गए ख़्वाब ये मेरे 
तुझे याद कर कर उन्हें सींकर देखा 

कहते हैं ये वक़्त भर देता है हर इक ज़ख्म 
मेरे ज़ख्मों को तो वक़्त ने भी कुरेदकर देखा 

ग़म सहते रहे

जितने भी ग़म सहते रहे, कलम से सब बहते रहे 
करके बहाना बज़्म का, हिज्रा-ए- ग़म सहते रहे 

                                                    दर्द क्या है हमने जाना दूर होकर ऐ ख़ुदा 
                                               अपने ही आशियाँ में, हम सलीब पर लटके रहे 

    हो गया तब्दील मैं इस दर्द से उस दर्द में 
बेकाबू होकर अश्क़ भी आँखों से फिर गिरते रहे 

                                                  जिसका लिखा ग़ज़लों में वो नाम बस तेरा ही है 
                                                    बस ये तुझे बताने को हम कलम घिसते रहे 

रात दिन जो था मुझे वो इंतज़ार है तेरा 
राह पर आँखें बिछी, सारे दिए बुझते रहे 

                                                अब न मुझे है चैन ही और ही है करार 
                                          बस तेरा ही तलाश में हम दर बदर फिरते रहे 

ज़िंदा लाश बन गया "आशु" उसे ये क्या हुआ 
 अब चले जहां भी वो, वहीँ निशां पड़ते रहे!!!

मैं तब उठा हूँ नींद से!!!


दोस्तों कभी कभी हम जागकर भी सोते ह रह जाते हैं। जाने क्यों? सवाल ही एक बड़ा सवाल कि आखिर ऐसा क्यों होता है, क्यों हम नींद से बहुत देर में उठते हैं? मैं भी शायद सोता ही रह गया था, पर जब उठा तो पता चला कि बहुत देर हो गयी है। बहुत देर!!! और जब उठ ही गया तो लिखना तो बनता ही था तो लिख दिया जो भी लगा, न ही कोई बहर, न ही कोई लय बस लिखता चला गया। और देखा कि एक ग़ज़ल फिर से मेरे डायरी के पन्नों पर छप चुकी थी। आज समय मिला तो आपकी प्रतिक्रियाएं जानने के लिए अपने ब्लॉग पर डाल रहा हूँ। आप बताइये कैसी लगी।




जब सब तमाशा बन गया, मैं तब उठा हूँ नींद से 
जब हाथ से सब खो गया, मैं तब उठा हूँ नींद से 

मैं समझा जिनको हमसफ़र, वो न थे मेरे रहगुजर 
उन्होंने जब धोखा दिया, मैं तब उठा हूँ नींद से 

यकीन था जिनपर मुझे उन्होंने ही धोखा दिया 
जब लुट गया सब कुछ मेरा,  मैं तब उठा हूँ नींद से 

वो मुहब्बत ही है क्या जिसमे जुदाई है नहीं 
जुदाई कह के जब ठुकरा दिया,  मैं तब उठा हूँ नींद से 

दिन हजारों बीते कब ये न मुझे पता चला 
जब अंधकार छा गया,  मैं तब उठा हूँ नींद से 

ख़्वाबों की गहराइयों में डूबा था मैं इस कदर 
सपने जब टूटे मेरे मैं तब उठा हूँ नींद से 

गर्दिशें सब को मिले, ये पता मुझको भी है 
जब मेरी खुशियों पे ग्रहण लगा,  मैं तब उठा हूँ नींद से 

खुशियों को ढूंढता था, मैं मेरे अपनों में ही 
जब अपनों ने ही ग़म दिया,  मैं तब उठा हूँ नींद से 

अब तो देख  "आशु" सब लोग भी येही कहें 
जब हो गया बर्बाद सब ये तब उठा है नींद से 

शनिवार, अक्तूबर 26, 2013

यादों के पुलिंदें

 मैंने कहीं सूना था कि एक ग़ज़ल में अगर पांच शेर हों, तो वो पूरी मानी जाती है। उसी बात को ध्यान में रखकर एक ग़ज़ल बहुत पहले लिखी थी जो आज यहाँ लिख रहा हूँ। इसे लिखने के पीछे क्या कारण रहा है, ये तो बता नहीं सकता, क्योंकि सारी बातें नही बताई जा सकती पर अपने भाव तो आपके सामने व्यक्त कर ही सकता हूँ। तो कर रहा हूँ, बताइगा केसी लिखी है।   




अपनी यादों के पुलिंदें खंगालता रहा 
मैं तुझको उनमे हरसू संभालता रहा 

बिखर गया था टूटे पत्थर सा मैं 
बस तेरे लिए ही खुद को संवारता रहा 

तू मांगे या न मांगे मुझे दुआओं में 
मैं तुझको ही बस रब से मांगता रहा 

तू है कितनी दूर मुझसे हो गयी 
मैं तो हरसू तुझे ही पुकारता रहा 

"आशु" की बात तुझको न आई समझ 
उम्र भर इसे ही मैं मलालता रहा! 

ख़ुदा तू है अगर कहीं






शरारत दिल में होती है 
तड़पना हम को पड़ता है! 

अश्क़ आँखों में होते हैं 
सिसकना हम को पड़ता है! 

करें क्या ये बता हमें 
तू एक बार तो खुदा! 

तेरी रहमत न हो अगर 
क्यों मरना हम को पड़ता है?

हमीं ने प्यार है किया 
फिर हमें ही दर्द क्यों दिया?

जिसे न प्यार है हुआ 
वो ही तो खुश है जी रहा! 

ये तेरी कैसी मार है 
मुझी पे करती वार है! 

मेरे इस शीशे के दिल को 
तुझी ने टुकड़े है किया!

कभी तो प्रेम को तूने 
हमीं को भीग में दिया! 

कभी जब रूठ तू गया 
हमीं को लूट भी लिया! 

अगर तू है यहाँ कहीं 
मेरी फ़रियाद सुन ज़रा! 

तेरे क़दमों में बैठा हूँ 
मुझे तू दान दे ज़रा! 

तू मेरे यार को मुझसे 
कहीं पे फिर से दे मिल!

नहीं तो टूटे इस दिल को 
तू थोड़ी आस दे ज़रा! 

शरारत दिल में होती है 
तड़पना हम को पड़ता है! 

आँखों में "आशू" की आंसू 
तड़पना उसको पड़ता है!

इश्क़

ये उन दिनों की बात है जब हम भी किसी से इश्क़ किया करते थे, पर ये महसूस हुआ के वो हमसे कुछ ज्यादा ही प्यार करती थी। पर क्या करें जो सबके साथ कभी न कभी घट ही जाता है हमारे साथ भी घटा, हमें उससे अलग होना पड़ा, पर अपनी कलम को कैसे रोकते, जो आंशु बहाने को तैयार थी, क्या करते रोक ही नहीं पाए उसे और रोने दिया, छोड़ दिया उसे उसके हाल पर बस हम तो उसे चला ही रहे थे, पर लिख तो कोई और ही रहा था। पता नहीं क्या हुआ था उस दिन... ये जो कुछ भी लिख गया था आपके सामने है।



क लड़की दीवानी सी मुझसे प्यार वो इतना करती थी 

आवाज़ नही सुने वो अगर फिर रात रात भर जगती थी 

                                                                                    उसकी बेचैनी देख कर मेरा दिल भी मुझसे जलता था वो जीती थी तेरे ही लिए, तू क्यों न उसको समझा था 

यहाँ घुट घुट कर मर जाएगा, जा उससे जाकर तू मिल ले 

वो तो इतनी दीवानी है कि तेरे लिए ही ज़िंदा है 

हर पल तुझको ही याद करेतेरे बिना उसका न वक़्त कटे 
उसका जीवन इक शिक्षा है कर ले जाकर तू ग्रहण उसे
गर दिल उसका दुखायेगा                                                                                    मुंह के बल तू गिर जाएगा                                                                   
                                               उसके आंशुओं के गिरने से तू क़र्ज़दार हो जाएगा 
इक दिन तू बहुत पछतायेगा और एक दिन ऐसा आयेगा तू घुट घुट कर मर जाएगा 

जा तू मिल ले उस देवी से जो याद में तेरी जीती है 

कुछ भी न उसको भाता है तू ही उसका विधाता है 

इक लड़की दीवानी सी मुझसे प्यार वो इतना करती थी 
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के मेरे लिए जीती है और मेरे लिए ही जिंदा है 
इक लड़की दीवानी सी 
मुझसे प्यार वो इतना करती है प्यार वो इतना करती है!!!!!!!!!!!

मैं ख़ास शायद था नहीं

दोस्तों समझ तो मुझे भी नही आया कि क्या लिख दिया है, पर बस एक काफ़िया मिला तो लिखने बैठ गया, ये बिना सोचे की आखिर कैसी बनेगी बस लिख दी। माफ़ करना अगर कुछ गलत लिखा हो तो, और अगर पसंद न आये तो बताना जरुर मुझे इंतज़ार रहेगा।   


किस्मत में तेरी प्यार शायद था नहीं
मुझको भी ऐतबार शायद था नहीं 

क्यों मैं रात रात भर ऐसे ही रोता हूँ 
जीने का सुरूर शायद था नहीं

याद कर तू, वो बज़्म वो तन्हाईयां
तुझको याद मेरे यार शायद था नहीं 

मैं तो हूँ इक राही, तू मंजिल मेरी
मंजिल पे खुमार शायद था नहीं 

साक़ी से कहता हूँ के अब पीना नहीं 
उसको भी मुझसे प्यार शायाद था नहीं 

बेवफ़ा तेरी वफ़ा कहाँ गयी 
मैं ही वफ़ा का यार शायाद था नहीं 

दुःख मेरे दामन है जकड़े हुए 
सुख मेरे सरकार शायद था नहीं 

आज "आशु" ही यहाँ तडपे नहीं 
पर हर कोई यहाँ प्यार करता नहीं