मंगलवार, दिसंबर 31, 2013

मेरी माँ ने झूठ बोल के आंसू छिपा लिया

मेरी माँ ने झूठ बोल के आंसू छिपा लिया
भूखी रह भरे पेट का बहाना बना लिया...

सिर पे उठा के बोझा जब थक गई थी वो
इक घूंट पानी पीके अपना ग़म दबा लिया...

दिन सारा की थी मेहनत पर कुछ नहीं मिला
इस दर्द को ही अपना मुकद्दर बना लिया...

फटे हुए कपड़ों को सीं सींकर है पहनती
ग़मों को फिर आँखों में अपनी छिपा लिया...

कब से अकेली जी रही ख़ुद ही के वो सहारे
उसने था तन्हाई को अपना बना लिया...

पता था उसे आज भी आया नहीं बापू
तो डाकिया से फिर पुराना ख़त पढ़ा लिया...

‘आशू’ अगर इस माँ का अब इक आंसू निकल गया

तो मान लेना तुमने अपना सब गवां दिया... 

रविवार, दिसंबर 22, 2013

मैंने समझा मेहताब था


मैंने समझा मेहताब था
पर उसमें भी कोई दाग था

हर बार बचा था मैं जिससे
वो ही तो मेरा काल था

जो छिपा रही वो थी मुझसे
शायद उसमे कोई राज़ था

जो हुआ नहीं कभी पूरा
टूटा हुआ मेरा ख़्वाब था

रब के आगे झुकता न कोई
हर बंदा यहाँ खूंखार था

वो निकल गई आगे मुझसे
फिर भी मुझे इंतज़ार था

अश्कों से भीगा था ‘आशू’

वो तन्हा था, बदहाल था.   

अपनी ही अंजुमन में

अपनी ही अंजुमन में मैं अंजाना सा लगूं
बिता हुआ इस दुनिया में फ़साना सा लगूं.

गाया है मुझको सबने, सबने भुला दिया
ऐसा ही इक गुजरा हुआ तराना सा लगूं.

अपने ही हमनशीनों ने भुला दिया मुझे
तो कैसे अब मैं गैरों को खजाना सा लगूं.

कई बार डूबा हूँ वहां मंजिल जहां पे थी
आज इक डूबा हुआ किनारा सा लगूं.

एक दिन निकल गया मैं खोज में उनकी
वो तो मिली नहीं, खुद को ही बेगाना सा लगूं.

‘आशू’ की आंसू थम न पाए आज तक

ऐसे गई के बिता हुआ ज़माना सा लगूं.    

सीढ़ी चढ़ते चढ़ते...

सीढ़ी चढ़ते चढ़ते जैसे गिर गया कोई
तकदीर के आगे अपनी झुक गया कोई.

कैसी लकीरें हाथ में दिखने लगी हैं अब
इन्हीं लकीरों के जाल में है बंध गया कोई.

 आरजू कुछ और थी कुछ और हो गयी
इस जिंदगी की आग में है जल गया कोई.

चाहे निकलना हर घड़ी निकल नहीं पाता
उस रेत के तूफ़ान में है फंस गया कोई.

गिरती हुई उस बर्फ़ की हम बात क्या करें

इस बर्फ़ की बरसात में है दब गया कोई...  

जिन्हें दिल में अब हम बसाने लगे थे

जिन्हें दिल में अब हम बसाने लगे थे
वो ही दूर अब हम से जाने लगे थे...

जो कहते थे आँखें तेरी हम बनेंगे
वही हम से नज़ारे चुराने लगे थे...

थी उनको जिन भी रकीबों से नफरत
उन्हें को वो अपना बताने लगे थे...

जिन पर यकीं था खुद से भी ज्यादा
वही झूठा कहकर बुलाने लगे थे...

जो सोचा नहीं था ख़्यालों में हमने
उसे सोचा सोच कर घबराने लगे थे...

न मांगी ख़ुदा से थी उसकी ख़ुदाई
क्यों ख़ुदा भी अब हमको भुलाने लगे थे...

जो मिलते थे सहरा में साहिल पे ‘आशू’
वही मिलने में अब कतराने लग थे...

वही मिलने में अब कतराने लग थे...   

शनिवार, दिसंबर 21, 2013

कितने मुसाफिर हैं यहाँ

कितने मुसाफिर हैं यहाँ, वीरान बस्ती में
पर सब यहाँ खुद से खफ़ा, वीरान बस्ती में.

हैं जानते सबकुछ मगर अनजान हैं बने
हर शक्स मांगे इक मकां, वीरान बस्ती में.

हैं चढ़ रहे एक दूसरे पर पैर रख रखकर
बेनूर है ये कारवाँ, वीरान बस्ती में.

कितना अकेला है यहाँ हर आम आदमी
घुट घुट के आंसू पी रहा, वीरान बस्ती में

है कर रहा फ़रियाद हाथों को फैलाए
पर है नहीं कोई सगा, वीरान बस्ती में

है आस न पर फिर भी है इंतज़ार कर रहा

के होगा इक बदलाव यहाँ, वीरान बस्ती में

कहते हैं इक ग़ज़ल में!!!

कहते हैं इक ग़ज़ल में, कुछ शब्द मायने रखते हैं.
पर शायर से तो पूछो कि कितने जमाने लगते हैं.

इन शब्दों का ताना बाना आसां नहीं यारों
ग़ज़ल लिखते तो दे कोई भी पर बहुत फ़साने लगते हैं.

कभी न था पता रदीफ़ का, न वाकिफ़ थे काफ़िये से
पर अब तो ये सारे ही हमको हमारे लगते हैं.

जब से आई है बहर हमें तब से पता नहीं
किस अंजुम में हम खो गए कुछ शब्द, हज़ारों लगते हैं.

कभी भाव नहीं आता है हमें, कभी छंद नहीं मिलते हैं
जब न मिले हमें कोई भी हम कुछ भी लिखने लगते हैं.

पर कुछ भी लिख-लिख ‘आशू’ आ है वहां पहुंचा


जहाँ दुश्मन भी सारे उसकों अपने प्यारे लगते हैं. 

नहीं सुनती जब तक...

इक बात अभी भी बाकी है...
मुझसे फिर क्यों नाराज़ी है...

नहीं सुनती जब तक बात मेरी
बेकार की ये आज़ादी है...
                    बेकार की ये...

हर मुमकिन कोशिश की मैंने
वो बात तुम्हें बताने की...

पर क्यों हो तुम अनजान बनी
क्यों रूठे दिल से बैठी हो...

नहीं सुनती जब तक बात मेरी
बेकार की ये आज़ादी है...
                    बेकार की ये...

दो बात यहाँ पर बनती है
तेरे बेनाम बहानों की...

पहली तू न सुनना चाहती
दूजी डरती घरवालों से...

नहीं सुनती जब तक बात मेरी
बेकार की ये आज़ादी है...
                    बेकार की ये...

जो सुन लेती मेरी पीड़ा
तो फिर से प्रीत लगा लेती...

पर तूने तो खाली है कसम
के सुननी नहीं दीवाने की...

नहीं सुनती जब तक बात मेरी
बेकार की ये आज़ादी है...
                    बेकार की ये...     

दिन आयेगा जब रोएगी
अपने किये सारे कामों पर...

और लिक्खेगी दीवारों पर
सारे बीते अफसानों को...

नहीं सुनती जब तक बात मेरी
बेकार की ये आज़ादी है...

                   बेकार की ये...

ये गुस्ताख आँखें...

ये गुस्ताख आँखें न माने हैं मेरी
मुझसे हैं मांगे झलक बस ये तेरी...

मैं कैसे मनाऊं और कैसे समझाऊं
के अब वो रही है न ऐ या तेरी...

ये गुस्ताख आँखें न माने हैं मेरी
मुझसे हैं मांगे झलक बस ये तेरी...

मैं नज़रें मिलाता न दर्पण से हूँ अब
हूँ जब भी मिलाता खबर मांगे तेरी...

हूँ मशरूफ़ अपनी ही चिल्मन में मैं अब
जब हो जाऊं फारिक़ हैं बातें ही तेरी...

ये गुस्ताख आँखें न माने हैं मेरी
मुझसे हैं मांगे झलक बस ये तेरी...

है जब से हुई थी मोहब्बत एक तरफ़ा
तभी से हैं जागी ये तन्हाई मेरी...

अगर इश्क़ हो तो हो दोनों तरफ से
नहीं तो ले आता है दुःख ये भतेरी...

ये गुस्ताख आँखें न माने हैं मेरी
मुझसे हैं मांगे झलक बस ये तेरी...
हैं धिक्कार मुझको दिया इक ही पल में
नहीं जाना उसने कभी थी वो मेरी...

के ठोकरें खाकर अब ‘आशू’ उठा है
नहीं अब बनेगा वो कमजोरी मेरी...

ये गुस्ताख आँखें न माने हैं मेरी

मुझसे हैं मांगे झलक बस ये तेरी...

सोमवार, दिसंबर 09, 2013

ये अंदाज-ए-जिंदगी...


ये अंदाज-ए-जिंदगी है 
सुख दुःख की बंदगी है।

जो थी कभी मोहब्बत 
आज वो ही रंजगी है।

हम भी मुशायरों की रौनक़ हुआ करते थे
अब न हैं हम कहीं भी बस बाकी बानगी है।।

ये अंदाज-ए-जिंदगी है 
सुख दुःख की बंदगी है।

जो थी कभी मोहब्बत 
आज वो ही रंजगी है।

चाहते थे हम बदलना अपने मुखारबिन को 
है दिख रहा बदलाव अब, क्या ये ही सादग़ी है।।

ये अंदाज-ए-जिंदगी है 
सुख दुःख की बंदगी है।

जो थी कभी मोहब्बत 
आज वो ही रंजगी है।

इक दिन था वो भी जब हम खुद में जिया करते थे 
इक दिन है ये भी जिसमें साँसों की कमजगी है।।

ये अंदाज-ए-जिंदगी है 
सुख दुःख की बंदगी है।

जो थी कभी मोहब्बत 
आज वो ही रंजगी है।

लिख तो रहे हैं ग़ालिब तेरी हम अंजुमन में 
गहराई आये कैसे, ये तेरी ही कमी है।।

ये अंदाज-ए-जिंदगी है 
सुख दुःख की बंदगी है।

जो थी कभी मोहब्बत 
आज वो ही रंजगी है।

है 'आशू' ओ माझी अब दरिया के इस किनारे 
गर पार हो गया तो ख़ुदा की रहमगी है।।

ये अंदाज-ए-जिंदगी है 
सुख दुःख की बंदगी है।

जो थी कभी मोहब्बत 
आज वो ही रंजगी है।  

शनिवार, दिसंबर 07, 2013

बड़े अजीब हैं रिश्ते बड़ी अजीब दास्तान

बड़े अजीब हैं रिश्ते बड़ी अजीब दास्तान 
कोई उजाड़े ख़्वाबों को कोई बना है बागबान।।


कोई नफरत की आग में जला जा रहा है बेपनाह

कोई बांटे हैं मोहब्बत, बदल रहा है ये जहान।।


हर जगह बातें दो हुई, खुदा भी एक न रहा

पुराना खो गया सबकुछ नया नया है कारवाँ।।


हो गया कितना अजनबी कभी नहीं था अकेला

ख़्वाब कोई भी न रहा, नहीं रहा है ख्वाबगाह।।


'आशू' क्यों टूट सा गया, रेत सा वो बिखर गया

उठाके कांधे पर अपनी चला है अरथी-ए-अरमान।।

तेरी आँखों में...

तेरी आँखों में मुझे दर्द नज़र आता है 
नज़रों से होते हुए सीने तलाक जाता है।।

खुदी को रोकता हूँ खुद ही की अब अंजुम से 
मगर ये इश्क़ मेरा तुझको पास लाता है।।

जो नहीं हुआ मेरा, उसे पाने की चाह है 
येही इक ख़्वाब है जो मुझको अब सताता है।।

जिसे न इश्क़ हुआ वो है खुश मिज़ाज़ जिया 
जिसे होता वो ही पागल सनम कहलाता है।।

इश्क़ के राह पर चलना बड़ा कठिन होता 
मगर चलता है जो पार वो ही पाता है।।

तेरी आँखों में मुझे दर्द नज़र आता है 
नज़रों से होते हुए सीने तलक जाता है।।

लोग कहते हैं 'आशू' इश्क़ की न बात करो 
मगर करने लगे जो, ख़ुदा की शरण पाता है 

नफ़स नफ़स घटते रहे


नफ़स नफ़स घटते रहे 
हम खुद ही खुद मरते रहे।।

जो ज़ख्म तूने दे दिए 
सारी उमर भरते रहे।।

नहीं उभर पाये कभी 
इक बोझ में दबते गए।।

इन अकेली राहों पर 
हम मौन ही चलते रहे।।

सीधे नहीं चल पाए हम 
ठोकर लगी गिरते रहे।।

इस इश्क़ की तलाश में 
हम उम्रभर भटके रहे।।

'आशू' की उम्र कट गई 
आंसू मगर गिरते रहे।।

शनिवार, नवंबर 30, 2013

ख्याल

ये ग़ज़ल लिखना मेरी मज़बूरी थी, लिखना नहीं चाहता था पर कुछ लोगों ने मज़बूर किया इससे लिखने के लिए। कहानी लम्बी है पूरी बात बता भी नहीं सकता हूँ पर इतना जरुर है के लोग बड़े एहसान फरामोश होते हैं। और सवाल है आपसे मेरा क्या कभी किसी एक का ख्याल किसी दूसरे से नहीं मिल सकता?

जो मिल जाए किसी का ख्याल किसी से 
क्या चोरी है हो जाती घर से किसी के।।

गर लिख दें हम भी किसी बड़े शायर की भाँती 
तो कहते हैं न बन तू शायर अभी से।।

किसी की ग़ज़ल का गर इक शब्द ले लिया तो 
है दामन पे लग जाता दाग तभी से।।

कोई ले ले शब्द को पहले अगर तो 
क्या हो जाता फिर वो अलग है सभी से।।

वो कहते हैं भाव हमारा लिखा है 
वो कहते हैं भाव हमारा लिखा है 
मगर क्या वो भाव है दिल में उन्हीं के?

निकल ही गये 'आशू' की आँखों में आंसू 
अब लिखेंगे शायरी हम इसी से इसी पे।।

मेरा दर्द रिस गया


मेरी कलम से आज मेरा दर्द रिस गया 
रोका बहुत मैंने उसे पर वो निकल गया।।

इससे पहले मैं कभी भी रोया नहीं था 
पन्ना मेरा आज ये अश्कों से भर गया।।

इक फूल था खिलने की डगर, पर अचानक से 
हैं क्या हुआ खिलने से पहले ही मुरझ गया।।

मैं कर रहा इंतज़ार के आएगी वो कभी 
ये इंतज़ार ही मेरी खुशियों को डस गया।।

लिखने को मिले शब्द न तो कुछ भी लिख दिया 
ये कुछ भी मेरे दर्द की पहचान बना गया।।

अश्कों की जगह 'आशू' का बहने लगा लहू 
इसी लहू से अब तो है दामन भी सन गया।।

यादों के पुलिंदे


अपनी यादों के पुलिंदे खंगालता रहा 
तुझको उनमें हरसू संभालता रहा।।

बिखर गया था टूटे पत्थर सा मैं 
तेरे लिए ही खुद को संवारता रहा।।

तू न मांगे दुआओं में अपनी मुझे 
मैं तो तुझको रब से हूँ माँगता रहा।।

तू हो गयी है मुझसे कितनी ही दूर 
मैं तो तुझे ही हरसू पुकारता रहा।।

'आशू' की बात तुझको न आई समझ 
उम्रभर तुझको ये ही समझता रहा।।

प्यार शायद था नहीं


किस्मत में मेरी प्यार शायद था नहीं 
खुद पे ऐतबार शायद था नहीं।।

क्यूँ मैं रात रात भर, ऐसे ही रोता हूँ
जीने का सुरूर शायद था नहीं।।

याद कर तू वो बज़्म वो तन्हाइयाँ 
तुझको याद मेरे यार शायद था नहीं।।

मैं हूँ एक राही तू मंज़िल मेरी 
मंज़िल पे खुमार शायद था नहीं।।

साक़ी से कहता हूँ अब पीना नहीं 
उसको भी मुझपे प्यार शायद था नहीं।।

बेवफ़ा तेरी वफ़ा कहाँ गई 
मैं ही वफ़ा काबिल शायद था नहीं।।

दुखों ने दामन है जकड़ा हुआ 
सुख मेरा सरकार शायद था नहीं।।

आज 'आशू' ही यहाँ तड़पे नहीं 
प्यार में वो खुमार शायद था नहीं।।

प्यार में वो खुमार शायद था नहीं।।   

शरारत दिल में

शरारत दिल में होती है 
तड़पना हम को पड़ता है

आंसू आँखों में होते हैं 
सिसकना हम को पड़ता है 

करें क्या ये बता हमें 
तू एक बार तो ख़ुदा 

तेरी रेहमत न हो अगर 
यूँ मरना हम को पड़ता है

हमीं ने प्यार है किया 
हमीं को दर्द है दिया 

जिसे न प्यार है हुआ 
वो ही तो खुश हैं जी रहा 

ये तेरी कैसी मार है 
मुझी पे करती वार है

मेरे इस शीशे के दिल को 
तुझी ने टुकड़े है किया 

कभी तो प्रेम को तूने 
हमीं को भीख में दिया 

कभी जब रूठ तू गया 
हमीं को लूट भी लिया 

अगर तू है कहीं यहाँ 
मेरी फरियाद सुन ज़रा 

तेरे कदमों में बैठा हूँ 
मुझे तू दान दे ज़रा  

तू मेरे यार को मुझसे
कहीं पे फिर से दे मिला    

नहीं तो मेरे इस दिल को 
थोड़ी सी आस दे ज़रा 

शरारत दिल में होती है 
तड़पना हम को पड़ता है

आंसू आँखों में होते हैं 
सिसकना हम को पड़ता है 

उस आग में न जल

जीवन को अपने यूँ ही ज़ाया कभी न कर 
जो राख कर दे तुझको उस आग में न जल।।

गर आया है धरती पे तो तू काम ऐसा कर 
याद आए तेरी सबको तू यार ऐसा बन।।

वो फासले मिटा दे जो हैं यूँ दरम्यान।।

तेरी कलम से रिसके गर आ सका जूनून
तो बदलेगा ज़माना कभी न कभी जरुर।।

जीवन को अपने यूँ ही ज़ाया कभी न कर 
जो राख कर दे तुझको उस आग में न जल।।

उस रास्ते को चुन जो जाता है बदी को 
उसपे कभी न तू चल जाए पाप की तरफ।।

तू ही यहाँ तूफ़ान है तू ही यहाँ फ़ौलाद है 
तू रवि की रोशनी तू चाँद की है चांदनी।।

जीवन को अपने यूँ ही ज़ाया कभी न कर 
जो राख कर दे तुझको उस आग में न जल।।

शुक्रवार, नवंबर 15, 2013

पछतावा!!!


उस दिन इक कदम उठा लेता तो आज न पड़ता पछताना।
कर लेता थोड़ी सी कोशिश तो आज न हँसता ज़माना।।

कहते हैं अब लोग मुझे मैं हूँ डरपोक ज़माने में।
सुन गर अपने दिल की लेता तो पड़ता न खुद को छिपाना।।

सारी दुनिया दुश्मन है बनी सारा परिवार बना दुश्मन।
गर चल मैं कांटो पर जाता तो होता नया ही फसाना।।

खाली महसूस करूँ खुद को, कोई है नहीं बचा मेरा।
पर उस दिन गर बढ़ जाता तो मेरा भी होता घराना।।

थोड़ी हिम्मत करके गर मैं भीड़ जाता उस दुःख के सैलाब से।
सारे दुःख दूर चले जाते खुशियों का मिलता खज़ाना।।

बुरी परछाई हट जाती नया सवेरा हो जाता।
थोड़ी सी कोशिश कर लेता न भरना पड़ता हर्जाना।।

नई रहे मुझे मिल जाती बुरे रस्ते सब हट जाते।
जो खोया है मैंने दुनिया फिर न पड़ता ऐसे कमाना।।

कैसे खुद को मैं निकालूं इस भयावह भंवर से।
जो कश्ती न चली अब तक उसको आ जाता चलाना।।

तेरी ही चाहत







है फ़क़त तेरी ही चाहत है तेरा ही इंतज़ार 
तू करेगी जाने कब मुझपे थोडा ऐतबार।।

मैंने तो तुझपे ही वारा अपना दिल अपना जहाँ 
कब करेगी जाने तू मुझपे अपना दिलनिसार।।

करता हूँ हरसू मैं कोशिश तुझसे मिलने कि ही बस 
आके कहदे मुझसे तू कि हूँ मैं तेरी एकबार।।

मिला भी तब उससे था जब हो रही थी वो विदा 
इक झलक देखा भी तब जब मैं बना उसका कहार।।

वो देखते ही देखते थी हो गयी 'आशू' जुदा 
        न हुआ इकरार भी इस बात का था बस मलाल।।